गणित का इतिहास :
प्राथमिक स्तर पर विद्यार्थियों में गणित के लिये सकारात्मक रोच और रूचि का विकास उतना ही जरुरी है जितना गणित का ज्ञानात्मक कौशल और गणित की अवधारणायें सीखना ।
गणितीय खेल , पहेलियाँ, कहानियाँ, दैनिक जीवन में गणित का प्रयोग इसके लिये उपयोगी सिद्ध हो सकती है।
गणित केवल अंकगणितीय मात्र न रहकर या संख्याओं और उनके उपयोग के अलावा आकारों (2D & 3D), शैक्षिक समझ , प्रतिरूपों , मापों और आंकड़ों की समझ को भी महत्कीव दिया जाना चाहिए ।
भारत में गणित शिक्षण का इतिहास :
भारतीय गणित के इतिहास ग्रंथों में ऋग्वेद में पाया गया है । इसे पांच भागों में बाँटा गया है:-
आदिकाल ( 500 ई. पूर्व तक )
(a) वैदिक काल (1000 ई पूर्व तक )
(b) वैदिक काल (1000 ई पूर्व से 500 ई पूर्व तक )
पूर्व मध्य काल (500 ई पूर्व से 400 ई पूर्व तक )
मध्यकाल (400 ई पूर्व से 1200500 ई. तक )
उत्तरमध्य काल (1200 ई से 1800 ई तक )
आधुनिक काल (1800 ई के पश्चात् )
आदिकाल ( 500 ई. पूर्व तक )
इस काल में अंकगणित(Airthmatic), बीजगणित (Algebra), रेखागणित (Geometry) का ज्ञात हो चूका था ।
(a) वैदिक काल (1000 ई पूर्व तक: - शून्य का अविष्कार इसी काल में मन जाता है ।
इसी काल से गणित की अनेक संक्रियाओं ; जैसे- योग, अंतर, गुणा, भाग , भिन्न, वर्ग, वर्गमूल, घन, दाशमिक स्थान पद्धति भारत से शुरू होकर अरब देशों से होती हुई पश्चिमी देशों में पहुचती है जिसे हिन्दू - अरबीक न्यूमरल्स कहा जाता है ।
(b) वैदिक काल (1000 ई पूर्व से 500 ई पूर्व तक ) :-
- इस काल की विशेषता ज्यामिति का ज्ञान है ।
- इस काल में पाइथागोरस का भी ज्ञान था ।
- इस काल में रेखागणित के सूत्रों का भी विस्तार तथा विकास किया गया था ।
- इस काल में तीन सूत्रकारों के नाम हैं - बौधायन , आगस्तम्ब और कत्यायन आदि ।
पूर्व मध्य काल (500 ई पूर्व से 400 ई पूर्व तक ):-
जैन साहित्यों की सूर्य प्रज्ञप्ति तथा ज्ञान प्रज्ञप्ति में गणित सम्बंधित जानकारी मिलती है ।
बख्शाली गणित व् जैन ग्रंथों से निम्न जानकारी मिलती है ;-
- संख्याओं को लिखने के लिये स्थानीय मान के नियम ,
- बीजगणित की रचना,
- शून्य की संकल्पना,
- खगोलशास्त्र तथा सूर्य सिद्धांत की रचना,
- अंक गणित (ब्ख्शाली गणित ) की रचना ,
- सूर्य सिद्धांत में त्रिकोणमिति का वर्णन मिलता है ।
मध्यकाल (400 ई पूर्व से 1200 ई. तक ):-
- इस काल को गणित का स्वर्ण काल कहा जाता है ।
- इसी काल में आर्यभट्ट, श्रीधराचार्य , भास्कराचार्य , महावीराचार्य आदि महान एवं श्रेष्ठ गणितज्ञ हुए।
- 'दशकगीत सूत्र' और 'आर्याशिष्टशतक' प्रमुख ग्रन्थ आर्यभट्ट ने दिया था ।
- आर्यभट्ट ने गणित गणित में मूल क्रिया घात क्रिया क्षेत्रफल आयतन श्रेणी बीजीय सर्वसमिकाएँ अन्त वर्ती , समीकरणों की खोज की ।
- आर्यभट्ट ने सर्वप्रथम पृथ्वी को गोल मानकर उसके व्यास का सही मान (4967 योजन ) ज्ञात किया ।
- उन्होंने π का मान 3.1416 ज्ञात किया ।
- आर्यभट्टीय में प्रस्तुत अंकन पद्धति आर्यभट्ट की अनमोल देन है।
- ज्योतिष गणित में वराहमिहिर का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा महाआर्य सिद्धांत की रचना आर्यभट्ट ll का योगदान क्षेत्र व्यवहार व् बीजगणित को बताता है।
उत्तरमध्य काल (1200 ई से 1800 ई तक ):-
- इस काल की प्रमुख रचना नारायण पंडित ने अंकगणित पर 'गणित कौमुदी ' नामक है।
- नीलकंठ ने 'ताजिक नीलकंठी' नामक ग्रन्थ है ।
आधुनिक काल (1800 ई के पश्चात् ):-
- नृसिंह बापू देव शास्त्री ने भारतीय एवं पश्चात्य गणित की पुस्तकों की रचना की है इनकी पुस्तकों में रेखागणित , त्रिकोणमिति , सयानवाद तथा अंकगणित प्रमुख है ।
- सुधाकर द्विवेदी ने दीर्घवृत्त लक्षण गोलीय रेखागणित , समीकरण में गुणा भाग की परिकल्पना दी हैं ।
- 'आर्यभट्टीय' में त्रिकोणमिति का उल्लेख है। ज्या (sine) का प्रयोग सबसे पहले इसी ग्रन्थ में मिला है और इसमें ज्या और उत्क्रमज्या की सारिणी भी मिलती है।
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